भगवत गीता – Bhagavad Geeta के लोकप्रिय श्लोक अर्थ सहित 🔥🔥 Popular Bhagwat Geeta shlok in Hindi, Sanskrit, English, Gujarati, Spanish and Arabic

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Geeta Shlok – भगवत गीता श्लोक – Gita Shlok

गीता श्लोक – भगवान् कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए दिव्य ज्ञान का दुनिया के बड़े-बड़े विद्धान अध्यन करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता या गीता श्लोक या भगवान् कृष्ण की टीचिंग में हम सबके जीवन का सार है, अगर हम इसे समझ जाएँ तो हमारा जीवन जीने का नजरिया ही बदल जायेगा एवं हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। जय श्री कृष्ण।

संदर्भ जब महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध कुरुक्षेत्र के मैदान में होने वाला था, तब पांडवों और कौरवों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। युद्ध का शंखनाद होने ही वाला था, लेकिन तभी अर्जुन के मन में गहरी दुविधा उत्पन्न हो गई। उन्होंने देखा कि उनके सामने उन्हीं के अपने गुरु, भाई, और रिश्तेदार खड़े हैं, जिनसे उन्हें युद्ध करना था। यह सोचकर अर्जुन का हृदय भर आया, उनके हाथ काँपने लगे, और उन्होंने अपने धनुष को नीचे रख दिया।

Geeta - Teaching of Lord Krishna just before starting of mahabharat

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा, “मधुसूदन! मैं अपने ही बंधु-बांधवों को कैसे मार सकता हूँ? यह युद्ध विनाशकारी होगा। मुझे धर्म और अधर्म में अंतर समझ नहीं आ रहा। मेरे विचार भ्रमित हो रहे हैं। मैं युद्ध नहीं करना चाहता।”

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक – द्वितीय अध्याय, श्लोक 23

अर्जुन की इस मानसिक स्थिति को देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का दिव्य ज्ञान दिया। उन्होंने अर्जुन को समझाया कि शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा अमर है। उन्होंने भगवद गीता के श्लोक 2.23 में कहा

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Gita Shlok ) – 2.23

नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥

भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यह शरीर तो मात्र एक वस्त्र की भांति है, जिसे समय आने पर त्याग देना पड़ता है, लेकिन आत्मा कभी नष्ट नहीं होती

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा  – अर्जुन, आत्मा को न कोई शस्त्र काट सकता है, न अग्नि जला सकती है, न जल गीला कर सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक – द्वितीय अध्याय, श्लोक 37

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने धर्म (कर्तव्य) के प्रति जागरूक कर रहे हैं। वे समझाते हैं कि एक क्षत्रिय (योद्धा) के लिए धर्मयुद्ध से पीछे हटना उचित नहीं है। यदि युद्ध में मृत्यु हो जाती है, तो योद्धा को स्वर्ग प्राप्त होता है, और यदि वह विजयी होता है, तो धरती पर राज्य एवं वैभव प्राप्त करता है।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Gita Shlok ) – 2.37

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥

If you are slain in battle, you will attain heaven; if you conquer, you will enjoy the kingdom on earth. Therefore, O Kaunteya (Arjuna), rise with determination and fight

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा  – यदि तुम युद्ध में मारे गए, तो स्वर्ग प्राप्त करोगे, और यदि विजयी हुए, तो पृथ्वी पर राज्य भोगोगे। इसलिए, हे कौन्तेय (अर्जुन), उठो और निश्चयपूर्वक युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक – द्वितीय अध्याय, श्लोक 47

भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में अर्जुन को निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया है। उन्होंने समझाया कि हमें कर्म करते समय उसके फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। अगर हम सिर्फ परिणाम की इच्छा से कर्म करेंगे, तो असफलता मिलने पर दुख होगा और सफलता मिलने पर अहंकार बढ़ेगा। इसलिए, हमें निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, फल की चिंता किए बिना।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagwat Geeta Shlok ) – 2.47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन, कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्म करो, फल की चिंता मत करो।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक द्वितीय अध्याय, श्लोक 62

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन, किस प्रकार मनुष्य का पतन धीरे-धीरे होता है। यह पतन एक मनोवैज्ञानिक श्रृंखला के रूप में कार्य करता है|

  1. ध्यान (Contemplation) – जब कोई व्यक्ति विषयों (भौतिक सुखों) पर बार-बार विचार करता है, तो वे उसके मन में गहराई से बैठ जाते हैं।
  2. संग (Attachment) – बार-बार विचार करने से उनमें आसक्ति बढ़ती है।
  3. काम (Desire) – जब यह आसक्ति मजबूत हो जाती है, तो व्यक्ति उसे पाने की तीव्र इच्छा करने लगता है।
  4. क्रोध (Anger) – यदि कोई वस्तु प्राप्त न हो या बाधा आए, तो व्यक्ति क्रोधित हो जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Gita Shlok ) – 2.62

ध्यानात् विसयं पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते।।

Madhusudan-teaching-in-Gita-Shlok to Arjun

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा  – विषयों (इंद्रियों के भोग) का ध्यान करने से मनुष्य को उनमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इच्छा (कामना) उत्पन्न होती है, और इच्छा पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है।
  • यह श्लोक यह समझने में मदद करता है कि मन को संयमित रखना कितना आवश्यक है।
  • इच्छाओं और आसक्तियों को नियंत्रित न करने से अंततः क्रोध और मानसिक अशांति उत्पन्न होती है।
  • इसलिए, श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि हमें इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए और विवेकपूर्वक कर्म करना चाहिए।
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भगवत गीता के फेमस श्लोक हिंदी, संस्कृत, गुजराती, स्पेनिश एवं अरबी भावार्थ के साथ – Famous Verses of Bhagavad Geeta in Hindi, Sanskrit, Gujarati, English, Spanish and Arabic with meaning –

भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक द्वितीय अध्याय, श्लोक 63

क्रोध एक बहुत ही विनाशकारी भावना है। जब व्यक्ति क्रोधित होता है, तो वह सही और गलत में भेद नहीं कर पाता और भ्रमित हो जाता है। यह भ्रम उसकी स्मरण शक्ति को प्रभावित करता है, जिससे वह अपने अनुभवों और शिक्षाओं को भूलने लगता है। जब स्मृति नष्ट हो जाती है, तो बुद्धि (विवेक) भी नष्ट हो जाती है, और विवेक के बिना व्यक्ति सही निर्णय नहीं ले पाता, जिससे उसका पतन निश्चित हो जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 2.63

क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

अर्जुन, क्रोध से भ्रम (मोह) उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति (याददाश्त) का नाश होता है, स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, और जब बुद्धि नष्ट हो जाती है, तो मनुष्य पूरी तरह से विनाश की ओर चला जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन, क्रोध से भ्रम (मोह) उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति (याददाश्त) का नाश होता है, स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, और जब बुद्धि नष्ट हो जाती है, तो मनुष्य पूरी तरह से विनाश की ओर चला जाता है।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक तृतीय अध्याय, श्लोक 21

यह श्लोक समाज में नेतृत्व और अनुकरण की प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि समाज में श्रेष्ठ व्यक्तियों की जिम्मेदारी अधिक होती है क्योंकि लोग उनकी बातों और कर्मों का अनुसरण करते हैं। यदि कोई महान व्यक्ति सत्कर्म करता है, तो बाकी लोग भी प्रेरित होकर उसी मार्ग पर चलते हैं। इसी प्रकार, यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति अनुचित आचरण करता है, तो समाज पर भी उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 3.21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

अर्जुन, श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसे ही आचरण करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन, श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसे ही आचरण करते हैं। वह जिस आचरण को प्रमाण मानता है, समस्त संसार उसका अनुसरण करता है।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक चतुर्थ अध्याय, श्लोक 07

जब भी संसार में अधर्म और अन्याय बढ़ता है, और धर्म संकट में पड़ता है, तब भगवान स्वयं किसी न किसी रूप में अवतरित होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि ईश्वर समय-समय पर धर्म की पुनर्स्थापना के लिए इस संसार में आते हैं, जिससे समाज में संतुलन बना रहे।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 4.07

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

Arjun, Whatever behavior the great men do, other people also behave in the same way and do the same work. Whatever proof or example he presents, the entire human community starts following him. 

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन, जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं स्वयं प्रकट होता हूँ।

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Bhagavad Geeta popular Shlok with meaning in Hindi, Sanskrit, English, Gujrati, Spanish and Arabic

भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक चतुर्थ अध्याय, श्लोक 08

यह श्लोक भगवान के अवतार लेने के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। जब भी धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब भगवान स्वयं अवतरित होकर साधुओं की रक्षा करते हैं, अधर्मियों का नाश करते हैं और धर्म की पुनर्स्थापना करते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 4.08

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥

Lord Krishna Says - For the protection of the righteous, the destruction of the wicked, and the establishment of dharma (righteousness), I manifest Myself in every age.

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन, साधुओं – संतजनों के उद्धार के लिए, दुष्कर्म करने वालों के विनाश के लिए तथा धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक चतुर्थ अध्याय, श्लोक 37

यह श्लोक दर्शाता है कि विश्वास, समर्पण और आत्म-संयम के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है और यह ज्ञान अंततः व्यक्ति को परम शांति की ओर ले जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 4.37

श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

A person who has faith, is dedicated to acquiring knowledge, and has control over their senses attains true wisdom. Upon gaining this wisdom, they quickly achieve supreme peace.

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा– जो श्रद्धावान (आस्थावान) होता है, जो ज्ञान प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है, और जिसने अपनी इंद्रियों को संयम में रखा है, उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त कर लेता है।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक नवम अध्याय, श्लोक 26

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्हें भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि वे प्रेम और श्रद्धा से अर्पित किसी भी चीज़ को सहर्ष स्वीकार करते हैं। यह संदेश देता है कि सच्ची भक्ति हृदय की गहराइयों से होनी चाहिए, न कि बाहरी आडंबर से।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 9.26

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥

Whoever offers Me with devotion a leaf, a flower, a fruit, or water, I accept that loving offering from the pure-hearted devotee.

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – जो भी भक्त प्रेम और श्रद्धा से मुझे पत्र (पत्ता), पुष्प (फूल), फल या जल अर्पित करता है, मैं उसे भक्तिपूर्वक अर्पित किए गए उस पवित्र उपहार को स्वीकार करता हूँ।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक द्वादश अध्याय, श्लोक 15

यह श्लोक शांतचित्त और स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के गुणों को दर्शाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं संतुलित रहता है और दूसरों को भी अशांत नहीं करता, जो भावनात्मक उतार-चढ़ाव से मुक्त है—वह व्यक्ति भगवान को अत्यंत प्रिय होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 12.15

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं संतुलित रहता है और दूसरों को भी अशांत नहीं करता, जो भावनात्मक उतार-चढ़ाव से मुक्त है—वह व्यक्ति भगवान को अत्यंत प्रिय होता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा –जो व्यक्ति न तो इस संसार से विचलित होता है और न ही संसार उसके कारण विचलित होता है, जो हर्ष (अत्यधिक खुशी), अमर्ष (क्रोध), भय और उद्वेग (चिंता) से मुक्त है – वही मेरा प्रिय भक्त है।

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भगवत गीता का लोकप्रिय श्लोक अष्टादश अध्याय, श्लोक 66

यह श्रीकृष्ण का सबसे महत्वपूर्ण उपदेश है, जिसमें वे पूर्ण समर्पण (श्रद्धा और भक्ति) की बात करते हैं। वह कहते हैं कि सभी सांसारिक कर्तव्यों और धर्मों को त्यागकर, केवल भगवान की शरण में जाने से मुक्ति संभव है। यह श्लोक भक्ति योग का सार है और हमें यह विश्वास दिलाता है कि सच्ची शरणागति से भगवान स्वयं हमें हर संकट से उबार लेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता श्लोक ( Bhagvad Geeta Shlok ) – 18.66

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

सभी प्रकार के धर्मों (कर्तव्यों) को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा; तुम शोक मत करो।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – सभी प्रकार के धर्मों (कर्तव्यों) को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा; तुम शोक मत करो।

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Geeta Shlok 1 -12       Geeta Shlok 13 – 26     Geeta Shlok 26 – Last

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