Shrimad bhagwat geeta : श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय और अर्थ हिंदी में

Bhagwat geeta हिन्दुओं का धर्मग्रंथ हैं। जिसे महर्षि वेदव्यास ने लिखा हैं। उन्होंने इसे संस्कृत में लिखा है। इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं।

जब महाभारत का युद्ध शुरु होने वाला था। और अर्जुन दोनों ही पक्षों में अपने लोगों को देखकर युद्ध करने से इंकार कर रहें थें। तो भगवान श्रीकृष्ण ने जो समझाया उसे Bhagavad gita के नाम से जानते हैं।

भारत में bhagwat geeta का बहुत बड़ा महत्व हैं। भारत में कोई भी हिंदू जब धर्म संकट में फंसता है तो वह एक बार जरूर महान भगवद्गीता को पढ़ता हैं। जिससे उसकी परेशानी चुटकी में समाप्त हो जाती हैं।

Contents

Bhagwat geeta के 18 अध्याय के नाम और हर अध्याय में कितने श्लोक हैं

1. अर्जुन विषादयोग (Arjuna vishada yoga) :– 46
2. सांख्ययोग (Samkhya Yoga) :– 72
3. कर्मयोग (Karma yoga) :– 43
4. ज्ञान कर्म संन्यासयोग (Jnana karma sanyasa yoga) — 42
5. कर्म संन्यासयोग (Karma sanyasa yoga) — 29
6. आत्मसंयमयोग (Atma samyama yoga) — 47
7. ज्ञान विज्ञानयोग (Jnana vijnana yoga) — 30
8. अक्षर ब्रह्मयोग (Akshara brahma yoga) — 28
9. राजविद्या राजगुह्ययोग (Raja vidya raja guhya yoga) — 34
10. विभूतियों (Vibhuti yoga) — 42
11. विश्वरूप दर्शनयोग (Vishvarupa darshana yoga) — 55
12. भक्तियोग (Bhakti yoga) — 20
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभागयोग (Kshetra Kshetrajna vibhaga yoga) — 35
14. गुणत्रय विभागयोग (Gunatraya vibhaga yoga) — 27
15. पुरुषोत्तमयोग (Purushottama yoga) — 20
16. दैवासुर समद्विभागयोग (Daivasura sampad vibhaga yoga) –24
17. श्रद्धात्रय विभागयोग (Shraddha traya vibhag yoga) — 28
18. मोक्ष संन्यासयोग (Moksha sanyasa yoga) — 78

श्रीमद्भगवद्गीता (bhagwat geeta) के सभी 18 अध्यायों का संक्षिप्त परिचय:-

महाभारत का पहला अध्याय: अर्जुन विषादयोग (सेना का सैन्य निरीक्षण)

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इस अध्याय में, अर्जुन को युद्ध के मैदान में अपने ही रिश्तेदारों और मित्रों को देखकर बहुत दुःख होता है। वह सोचता है कि क्या यह युद्ध उचित है? क्या हमें युद्ध करना चाहिए?

मुख्य बातें:

  • अर्जुन का दुःख
  • श्रीकृष्ण की सलाह
  • सेना का निरीक्षण
  • युद्ध की तैयारी

श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि युद्ध करना बहुत जरूरी है और युद्ध से भागना नहीं चाहियें। और अपने कर्तव्य को पूरा करना चाहिए।

द्वितीय अध्याय: सांख्ययोग (गीता का सार)

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इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को जीवन के बारे में सिखाते हैं। वह अर्जुन को बताते हैं कि जीवन में दुःख और सुख आते-जाते रहते हैं, लेकिन हमें कभी हार नहीं माननी चाहिए।

मुख्य बातें:

  • जीवन के दुःख-सुख
  • हार नहीं मानना
  • कर्तव्य पूरा करना

श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि हमें अपने कर्तव्य को पूरा करना चाहिए, भले ही वह कितना भी कठिन क्यों न हो।

महाभारत का तीसरा अध्याय: कर्मयोग

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श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं:–

कर्म करो, फल की चिंता नहीं।
अपना काम ईमानदारी से करो,
फल की इच्छा नहीं रखना।

श्रीकृष्ण कहते हैं:– हमें अपना काम ईमानदारी से करना चाहिए, लेकिन फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। हमें अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए, न कि फल पर।

महाभारत का चौथा अध्याय: ज्ञान कर्म संन्यासयोग (दिव्य ज्ञान)

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श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं:–

ज्ञान ही शक्ति है, कर्म और ज्ञान मिलाकर चलो, सच्चा ज्ञान मुक्ति देता है। 

श्रीकृष्ण कहते हैं:– ज्ञान हमें शक्ति देता है। हमें कर्म और ज्ञान को मिलाकर चलना चाहिए। सच्चा ज्ञान हमें मुक्ति का रास्ता दिखाता है।

ज्ञान से हमें सच्चाई का पता चलता है, कर्म से हमें अनुभव मिलता है, सच्चा ज्ञान हमें जीवन का सही रास्ता दिखाता है। 

पांचवा अध्याय: कर्म संन्यासयोग (कर्म वैराग्य योग)

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श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि

कर्म करो, वैराग्य रखो, फल की इच्छा न करो, कर्म से मुक्ति मिलती है। 

श्रीकृष्ण कहते हैं:– हमें कर्म करना चाहिए, लेकिन वैराग्य रखकर। हमें फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। कर्म से मुक्ति मिलती है।

कर्म करना हमारा धर्म है, वैराग्य से हमें शांति मिलती है, मुक्ति के लिए कर्म और वैराग्य दोनों जरूरी हैं। 

छठा अध्याय: आत्मसंयमयोग (ध्यान योग)

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श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि

ध्यान से आत्मसंयम मिलता है, मन को शांत करना सीखो, ध्यान से मुक्ति का मार्ग मिलता है। 

श्रीकृष्ण कहते हैं: ध्यान से हमें आत्मसंयम मिलता है। हमें अपने मन को शांत करना सीखना चाहिए। ध्यान से हमें मुक्ति का मार्ग मिलता है।

ध्यान से हमें ज्ञान मिलता है, मन को शांत करने से हमें शांति मिलती है, ध्यान से हमें अपने आप को समझने में मदद मिलती है। 

सातवाँ अध्याय: ज्ञान विज्ञानयोग (भगवद्ज्ञान की प्राप्ति)

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श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि

भगवद्ज्ञान से सच्ची मुक्ति मिलती है, ज्ञान और विज्ञान का मेल होना चाहिए, भगवद्ज्ञान से हमें सच्चा जीवन मिलता है। 

भगवद्ज्ञान से हमें सच्चाई का पता चलता है, ज्ञान और विज्ञान से हमें जीवन का सही रास्ता मिलता है, भगवद्ज्ञान से हमें अपने आप को पहचानने में मदद मिलती है। 

इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को भगवद्ज्ञान के महत्व के बारे में सिखाते हैं। वह अर्जुन को बताते हैं कि भगवद्ज्ञान से हमें सच्ची मुक्ति मिलती है और हमें अपने जीवन को सही तरीके से जीने में मदद मिलती है।

आठवाँ अध्याय: अक्षर ब्रह्मयोग (भगवान की प्राप्ति)

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श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि

भगवान को पाने के लिए मेहनत करो, अक्षर ब्रह्म को जानो और समझो, भगवान के साथ जुड़ो।

भगवान की प्राप्ति से मुक्ति मिलती है, अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होना आवश्यक है, भगवान के साथ एकता (जुड़ने) से शांति और आनंद मिलता है। 

इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को भगवान की प्राप्ति के बारे में सिखाते हैं। वह अर्जुन को बताते हैं कि भगवान की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करना आवश्यक है और अक्षर ब्रह्म को जानना और समझना भी जरूरी है।

नवम अध्याय: राजविद्या राजगुह्ययोग (परम गुप्त ज्ञान)

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श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि

परम गुप्त ज्ञान प्राप्त करो, भगवान के साथ जुड़ने का रास्ता जानो सच्ची शांति और मुक्ति पाओ। 

भगवान की शक्ति को समझो, अपने आप को पहचानो, सच्चा ज्ञान प्राप्त करो। 

इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को परम गुप्त ज्ञान के बारे में बताते हैं, जो भगवान के साथ जुड़ने का रास्ता है। वह अर्जुन को सच्ची शांति और मुक्ति प्राप्त करने के लिए भगवान की शक्ति को समझने और अपने आप को पहचानने के लिए प्रेरित करते हैं।

महाभारत का दसवां अध्याय विभूतियोग: (श्रीभगवान  ऐश्वर्य)

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श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि

मेरी विभूतियों को जानो, मेरा ऐश्वर्य समझो, मैं सर्वशक्तिमान हूँ। 

मेरी शक्तियाँ जानो, मैं सब कुछ कर सकता हूँ, मैं सबसे बड़ा हूँ। 

मैं सृष्टि का कर्ता हूँ, मैं सृष्टि का पालनकर्ता हूँ, मैं सृष्टि का विनाशक हूँ।

मैंने सृष्टि बनाई है, मैं सृष्टि का देखभाल करता हूँ, मैं सृष्टि को बदल सकता हूँ। 

महाभारत के इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी विभूतियों और ऐश्वर्य के बारे में बताते हैं। वह अर्जुन को अपनी सर्वशक्तिमानता का एहसास कराते हैं और बताते हैं कि वह सृष्टि का कर्ता, पालनकर्ता और विनाशक हैं।

ग्यारहवाँ अध्याय: विश्वरूप दर्शनयोग (विराट रूप)

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श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि

मेरा विराट रूप देखो, मैं सारी सृष्टि में हूँ, मैं सब कुछ हूँ। 

मेरा रूप बहुत बड़ा है, मैं सारे जीवों में हूँ, मैं सारी सृष्टि का आधार हूँ। 

इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाते हैं, जो सारी सृष्टि को समेटे हुए है। वह अर्जुन को बताते हैं कि वह सारे जीवों में और सारी सृष्टि में हैं।

बारहवाँ अध्याय: भक्तियोग

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श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं:–

मुझसे प्रेम करो, मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हारा हूँ। 

भक्ति से मुक्ति मिलती है, भक्ति से शांति मिलती है, भक्ति से मैं तुम्हारे साथ हूँ। 

इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को भक्ति के महत्व के बारे में बताते हैं। वह अर्जुन को बताते हैं कि भक्ति से मुक्ति और शांति मिलती है और वह भक्तों के साथ हमेंशा रहते हैं।

महाभारत का तेरहवां अध्याय: क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभागयोग (प्रकृति, पुरुष तथा चेतना)

bhagavad geeta

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि

शरीर एक घर है, आत्मा उसमें रहती है।
प्रकृति और आत्मा को अलग समझो,
चेतना ही सच्चा जीवन है।

प्रकृति के तीन गुण हैं:–

  • सत्व गुण – ज्ञान और शांति
  • रजस गुण – काम और गति
  • तमस गुण – अज्ञान और आलस्य

आत्मा प्रकृति से परे है, चेतना ही सच्चा जीवन है। आत्मा नित्य है, शाश्वत है, और अविनाशी है। प्रकृति के गुणों से परे होकर आत्मा को जानना ही सच्चा जीवन है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों को जानता है और उनसे परे होकर आत्मा को जानता है, वह मुझे जानता है। वह व्यक्ति मुझमें लीन हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।

क्षेत्रज्ञ (आत्मा) की विशेषताएं हैं:–

  • सच्चिदानंद स्वरूप
  • नित्य और शाश्वत
  • अविनाशी और अप्रमेय
  • सर्वव्यापी और अनंत

इस अध्याय में, श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रकृति, पुरुष, और चेतना के बारे में सिखाते हैं और उन्हें क्षेत्रज्ञ (आत्मा) की विशेषताएं बताते हैं।

पुरुष का अर्थ है– “आत्मा” या “चेतना”। यह वह है जो शरीर में रहता है, लेकिन शरीर से अलग है। पुरुष नित्य है, शाश्वत है, और अविनाशी है। यह सर्वव्यापी और अनंत है।

पुरुष की विशेषताएं हैं:–

  • सच्चिदानंद स्वरूप (सत्य, चेतना, और आनंद से बना हुआ)
  • नित्य और शाश्वत (हमेशा के लिए रहता है)
  • अविनाशी और अप्रमेय (नष्ट नहीं होता और इसकी सीमा नहीं है)
  • सर्वव्यापी और अनंत (हर जगह मौजूद है और इसका कोई अंत नहीं है)

पुरुष को जानना और समझना ही सच्चा जीवन है। यह आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है और मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है।

चौदहवाँ अध्याय: गुणत्रय विभागयोग (प्रकृति के तीन गुण)

bhagwat gita

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि प्रकृति के तीन गुण हैं:–

  • सत्व गुण – ज्ञान और शांति
  • रजस गुण – काम और गति
  • तमस गुण – अज्ञान और आलस्य

इन तीनों गुणों का प्रभाव हर जीव पर होता है। सत्व गुण से ज्ञान और शांति मिलती है, रजस गुण से काम और गति मिलती है, और तमस गुण से अज्ञान और आलस्य मिलता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति इन तीनों गुणों से परे होकर आत्मा को जानता है, वह मुझे जानता है। वह व्यक्ति मुझमें लीन हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।

गुणों के प्रभाव:–

  • सत्व गुण – शांति, ज्ञान, और सुख
  • रजस गुण – काम, गति, और दुख
  • तमस गुण – आलस्य, अज्ञान, और मोह

श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि गुणों को जानना और उनसे परे होकर आत्मा को जानना ही सच्चा जीवन है।

पन्द्रहवाँ अध्याय: पुरुषोत्तमयोग

Gita bhagwat


श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि

मैं पुरुषोत्तम हूँ, सबसे बड़ा हूँ।
मैं सारी सृष्टि में हूँ, हर जगह मौजूद हूँ।
मैं सारे जीवों में हूँ, हर जीव में मेरी चेतना है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं पुरुषोत्तम हूँ, जिसका अर्थ है “सबसे बड़ा पुरुष”। मैं सारी सृष्टि में हूँ, हर जगह मौजूद हूँ, और सारे जीवों में हूँ।

मैं तीनों गुणों से परे हूँ, सत्व, रजस, और तमस से परे हूँ।
मैं सारी सृष्टि का आधार हूँ, सारी सृष्टि मुझ पर टिकी हुई है।
मैं सारे जीवों का आत्मा हूँ, सारे जीवों में मेरी चेतना है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि मुझे जानना और मुझमें लीन होना ही सच्चा जीवन है। मैं पुरुषोत्तम हूँ, और मुझे जानना ही मोक्ष प्राप्त करने का रास्ता है।

महाभारत का सोलहवां अध्याय: दैवासुर समद्विभागयोग ( दैवी तथा आसुरी स्वभाव)

Geeta bhagwat

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि दो प्रकार के स्वभाव हैं:–

  • दैवी स्वभाव (दिव्य)
  • आसुरी स्वभाव (राक्षसी)

दैवी स्वभाव के गुण:–

  • सत्य
  • शांति
  • दया
  • करुणा
  • ज्ञान

आसुरी स्वभाव के गुण:–

  • असत्य
  • क्रोध
  • लोभ
  • हिंसा
  • अज्ञान

श्रीकृष्ण कहते हैं कि दैवी स्वभाव वाले लोग मुझे जानते हैं और मुझमें लीन होते हैं, जबकि आसुरी स्वभाव वाले लोग मुझसे दूर रहते हैं और अज्ञान में रहते हैं।

अर्जुन, तुम्हें दैवी स्वभाव को अपनाना चाहिए और आसुरी स्वभाव से दूर रहना चाहिए।

सत्रहवां अध्याय:  श्रद्धात्रय विभागयोग (श्रद्धा के विभाग)

bhagavad gita

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि श्रद्धा (विश्वास) तीन प्रकार का होता है:–

  • सत्विक श्रद्धा (शुद्ध विश्वास)
  • राजसिक श्रद्धा (रजोगुणी विश्वास)
  • तामसिक श्रद्धा (तमोगुणी विश्वास)

सत्विक श्रद्धा:–

  • देवताओं में विश्वास
  • दान और तपस्या में विश्वास
  • सत्य और ज्ञान में विश्वास

राजसिक श्रद्धा:–

  • काम और भोग में विश्वास
  • रजोगुणी कर्मों में विश्वास
  • स्वार्थ में विश्वास

तामसिक श्रद्धा:–

  • अंधविश्वास और मिथ्या में विश्वास
  • हिंसा और क्रूरता में विश्वास
  • अज्ञान और आलस्य में विश्वास

श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्विक श्रद्धा वाले लोग मुझे जानते हैं और मुझमें लीन होते हैं, जबकि राजसिक और तामसिक श्रद्धा वाले लोग मुझसे दूर रहते हैं और अज्ञान में रहते हैं।

महाभारत का अठारहवाँ अध्याय:  मोक्ष संन्यासयोग (उपसंहार-संन्यास की सिद्धि)

bhagwat geeta in hindi

श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि संन्यास की सिद्धि के लिए तीन बातें जरूरी हैं:–

  • सच्ची श्रद्धा (विश्वास)
  • सच्चा ज्ञान (ज्ञान)
  • सच्चा वैराग्य (मोह और अहंकार का त्याग)

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति इन तीनों बातों को अपनाता है, वह संन्यास की सिद्धि को प्राप्त करता है और मोक्ष प्राप्त करता है।

मोक्ष प्राप्त करने के लिए, आपको अपने मन और बुद्धि को मुझमें लगाना होगा। मुझमें लीन होने से आपको शांति और आनंद की प्राप्ति होगी।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह गीता का उपसंहार है, और जो व्यक्ति इसका पालन करता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है। मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ कि आप गीता के उपदेशों को अपनाकर मोक्ष प्राप्त करें।

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